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कविता

नहीं मरूँगी मैं

सुजाता


जाऊँगी सीधी, दाएँ और फिर बाएँ
आगे गोल चक्कर पर घूम जाऊँगी
लौट आऊँगी इसी जगह फिर से

जब सो जाओगे तुम सब लोग
उखाड़ दूँगी यह सड़क
उगा आऊँगी इसे
समंदर पर
गोल चक्कर को चिपका दूँगी
सड़क के फटे हुए हिस्सों पर

कुछ भी करूँगी
सोऊँगी नहीं आज

मैं मरूँगी नहीं बिना देखे काली रात सुनसान
लैंप पोस्ट की रोशनी में चिकनी सड़कें
मरूँगी नहीं
शांतिनिकेतन के पेड़ों की छाँव मेँ
निश्चेष्ट कुछ पल पड़े रहे बिना
नहीं मरूँगी उस विद्रोहिणी रानी का खंडहर महल
अकेले घूमे बिना
मर भी कैसे सकती हूँ
बनारस के घाट पर देर रात
बैठ तसल्ली से कविताएँ पढ़े बिना

नहीं मरूँगी
किसी शाम अचानक पहाड़ को जाती बस में सवार हुए बिना
बगैर किए इंतजाम और सूचना दिए बिना
और फिर...

लौटूँगी एक दिन
बिल्कुल जिंदा।


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